Monday, September 21, 2009

beetal ka sangeet

नमस्कार मित्रों!
मैं पिछले दिनों एक बड़े ही सुन्दर चीज के पीछे पड़ा था. 


वो चीज थी साठ और सत्तर के दशक के महान संगीत- बैंड बीटल का संगीत. 
सबसे पहले तो मैंने अचानक ही यू-ट्यूब पर एक विडियो देखा जिसमे बीटल्स का प्रसिद्द गीत "यू गोट टू हाइड यौर लव अवे " दिखाया गया था. 
मैं पूर्ण रुपें भारतीय हूँ. एक छोटे से शहर में पला-बाधा, हिंदी फिल्मों के गानों और पंचम-दा, किशोर कुमार, मुकेश, रफी, रहमान, लता और श्रेया घोषाल के  अलावा और कुछ भी नहीं जानता था. मगर इन्टरनेट कि कृपा से अचानक पिछले महीने बीटल के संनिद्धि में आ गया.
           यद्यपि बीटल अमरीकन हैं, फिर भी उनके संगीत में कहीं न कहीं भारतीयता जरूर झलकती है. खास कर जोर्ज  हेरिसन का संगीत कई मायनों में भारतीय है. उनके कई गीत भी भारतीय संस्कृति और आध्यात्म से प्रेरित हैं. हेरिसन का पहला गाना जो मैंने सुना था, वो था- "दिस सोंग". यह गाना उन्होंने अपनी शुरूआती दिनों में तब बनाया था, जब उनके सुप्रसिद्ध गाने- "my स्वीट लोर्ड" को अमरीका के कुछ परंपरा वादी लोगों ने अदालत में घसीटा था, और उनके sarwjanik गाने पर paabandi lagaai गई थी. जब हेरिसन ने वह mukadma jeet लिया, तब उन्होंने "दिस सोंग" naamak गीत बनाया. यह गीत sunne के बाद मैं "my स्वीट लोर्ड" sunne के लिए प्रेरित हुआ. 
इस गाने को sunne के बाद मुझे पता चला कि हेरिसन asal में iskcon के sadasya then, और भारत के महान sant श्री bhaktivedant swami से बहुत prabhavit थे. prasangvash, श्री swami ने अमरीका में hindu darshan और vaishnay sampraday का jabardast prachaar किया है. उन्होंने ही 'antar-rashtriya krishna bhaawnaamrit sangh'(International Society of Krishna Consciousness- ISKCON) की sthapna कि थी.
बीटल के अन्य sadasy, jon lenan, sir paul mac-kartani tatha ringo star भी भारत से atyant prabhavit थे. उनके aadhyatmik guru maharshi yoganand थे. जब बीटल भारत कि yaatra पर था, तब haridwaar में maharshi के ashram पर उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध गीत- "across द universe" की rachna की थी. 




(इस बार post prakashit करना kathin हो गया है, kyoni ब्लॉगर में कोई pareshani uttpan हुई है. और यह roman aksharon को devnaagri में बदल नहीं पा रहा है.)

Thursday, August 27, 2009

कविता

हे कविते, तू कितनी सुंदर?

शब्द, छंद और अलंकार
के आभूषण से रची बसी तू।
तुकबंदी अरु अतुकांत के भेद-अभेद में खसी खसी तू।

कभी वीर के रगों में बनकर लहू दौड़ती,
कभी कामनी के अधरों पे रस सी ठौरती;
कभी कर्म में लगे जीव की शान्ति प्रदाता-
कभी धर्म में देवो के यज्ञों में गूंजती।

तू कवि की कल्पना, अल्पना, जीवन-संगिनी,
फ़िर भी क्यो, भाषा, शब्दों, वाक्यों की बंदिनी?

तू तो ह्रदय का गान है,
महत का तू ही ज्ञान है,
तू निज का अभिमान है-
हरि की प्रिय संतान है।

फ़िर क्या डरना, इस जगती के रूपों से,
दिशा, काल और स्थिति के स्वरूपों से-
हर पल उसका गान कर, जो तेरा सम्राट है।
जो हरि, तुझमे, मुझमे, सबमे, सबसे परे विराट है।
जिस से मिलके गिद्ध, अजामिल, गणिका, गज भी मुक्त हुए।
उसके ही प्रेम में तेरे सहज पद्य भी सूक्त हुए।

तो फ़िर चल मैं उस प्यारे से प्यार करूँ।
और उसी के प्यारे शब्दों से तेरा श्रृंगार करूँ।
जिसके शब्दों के प्रताप से पत्थर सागर में तरे
आज उसी के नाम-गान में आ, हम दोनों चरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

- प्रिय रंजन।

Saturday, August 1, 2009

एक कविता.

सावन तेरे इन्तजार में।
भूले बिसरे दिन मेरे जो बीते तेरी छम छम में।
वो नदिया, वो खेत हरे जो भीगे तेरी रिम झिम में।
तेरे आने से जो सारे चेहरे खिल जाते थे
तेरी बूंदों से भीग के बूटे बूटे मुस्काते थे,
तू आता था तो बच्चे सडको पे जहाज बहाते थे-
तेरे लय में मिल के नर नारी मलहार सुनाते थे।
तेरा बादल, तेरी बरखा, तेरा पवन सुहाना था।
पत्ता पत्ता, खेत, गली, अग- जग तेरा ही दीवाना था।
पिछले बरस ही तू आया था, पर लगता है युग बीत गए।
सावन तेरे इन्तजार में, इस साल हम रीत गए।

प्रिय रंजन

Sunday, May 3, 2009

एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-३.

पूर्वापर
दीपक और प्रकाश ने गंगा के घाट पर आरती की जान बचाई। दुबे को पुलिस पकड़ के ले गयी। अगले पाँच दिनों तक आरती दीपक के मकान मालिक श्री पाण्डेय जी के घर पर रुकी। चौथे दिन आरती के चाचा श्री यादव जी आ गए। दीपक आरती से प्रेम करता है। शायद आरती भी दीपक से प्रेम करती है। मगर दीपक ने आरती से कुछ कहा नही है। प्रकाश दीपक को कहता है की आरती को अपने दिल का हाल सुना दे। अब आगे-
बिछड़ने का दिन।
आज पांचवा दिन है। आरती शनिवार को मिली थी। आज शुक्र वार है। पूरे सप्ताह में दीपक के दिल की दुनिया ही बदल गयी है। दीपक सोच भी नही पा रहा है कि आरती के वापस चले जाने के बाद उसकी जिंदगी कैसे बीतेगी। सुबह में जब प्रकाश उसे कॉलेज ले जाने के लिए आया, तो उसने तबियत ख़राब होने का बहाना बनाया। प्रकाश ने कहा- "बेटा मैंने कहा था न कि ऐसी बातें दिल में रखना स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं। मैं चलता हूँ कॉलेज। २ बजे आऊंगा। ५ बजे ट्रेन है। अभी १० बज रहा है। तेरे पास ४ घंटे हैं। बोल डाल। फ़िर मैं तुझे मेरे कंधे पर सर रख के रोने नही दूंगा। ओ के । "
दीपक हंसा- " हा हा । ठीक है यार। तेरी बात मान ली।"
दिन के १२ बज रहे थे। मोगाम्बो (यादव जी) पाण्डेय जी के साथ बनारस के बाज़ार से कुछ खरीदारी
करने गए थे। अब शौक है भाई। नीचे आरती अपना सामान पैक कर रही थी। ऊपर दीपक अपने कमरे में बैठा किताब पढने कि कोशिश कर रहा था। अचानक नीचे से रोने धोने कि आवाज़ आने लगी। दीपक ने ध्यान दिया। उषा कहा रही थी- "आरती दीदी, मुझे जाके भूल मत जाना। टेलीफोन करना।" दीपक ने वापस किताब पर ध्यान दिया- 'लड़कियां!'

१ बजे के करीब आरती अपना सूखता हुआ दुपट्टा लेने के लिए छत पर आई। दीपक ने किताब के कोने से देखा-' क्यों हो इतनी सुंदर? क्या मेरे पिछले जन्मो के पापो कि सज़ा देने के लिए इश्वर ने तुम्हे इतना सुंदर बनाया है? तुम चली जोगी, फ़िर मैं कैसे जियूँगा ? तुम्हे अंदाज़ भी है? ऐसा मुखडा, ऐसा स्वरुप, ऐसी आंखे, ऐसी आवाज़, ऐसे होंठ, क्यो लेके आई हो तुम? आई तो आई। अब जा क्यो रही हो? एक बार भी मुझ पर तरस नही खाया। कम से कम ही पूछ ही लेती- "मेरे प्राण प्रिये! क्या मैं चली जाऊं?" फ़िर मैं तुम्हे हाथ पकड़ के रोक लेता। देख लेता मैं दुनिया को और तुम्हारे मोगाम्बो को।' इतना सोचते ही दीपक के होंठो पर मुस्कान खेल गयी। उसने देखा। आरती अपने दोनों सूखे हुए दुपट्टे हाथ में लेके उसकी ही तरफ़ आ रही है।
"नमस्ते दीपक जी।"
"नमस्ते। आइये बैठिये।" दीपक ने कुर्सी छोड़ दी और ख़ुद बिस्तर पर बैठ गया।
"नही मैं बैठने नही आई हूँ।"
"तो------"
"मैं बस आपको विदा कहने आई हूँ। एक घंटे में चाचाजी और प्रकाश जी आ जायेंगे। फ़िर हम चले जायेंगे।''
''अरे रे। मैं भी तो आऊंगा न स्टेशन पर छोड़ने---"
"नही। वो तो है। मगर मैं आपको थैंक यू बोलना चाहती थी........."
"थैंक यू--!?"
"आपने मेरी इतनी मदद की। एक अंजान के लिए कौन करता है इतना सब ---"
'मैं अंजान! मैं तो हजारों सालों से तुम्हारा हूँ--' "नही, नही। इस में थैंक यू कि क्या बात है? ये तो मेरा फ़र्ज़ था-"
"अच्छा तो मैं चलती हूँ--"
"इतनी जल्दी-" "नही, मैं तो नीचे जा रही हूँ।" आरती को दीपक कि बेचैनी देख के हँसी आ गयी। उसकी मुस्कराहट देखकर दीपक ने होश खो दिए-' दीपक के बच्चे। देख वो भी तुझ से प्यार करती है। क्यो ख़ुद भी जल रहा है, और उसकी जान से भी खेल रहा है। बोल दे। बोल दे। बोल दे।'
आरती वापस मुडी और सीढियों कि और जाने लगी। 'बोल दे दीपक। बोल दे।'
आरती सीढियों के कमरे में आ गयी। तभी दीपक ने पीछे से पुकारा- "आरती।"
आरती पीछे मुडी -"हा। कहिये--"
"आरती मैं तुम्हे कुछ कहना चाहता हूँ।"
"क्या?" आरती खड़ी ही थी। दीपक उसकी तरफ़ बढ़ा। "मैं--"
"जी!??" आरती ने दीपक को बड़ी उम्मीद से देखा। दीपक ने इधर उधर देखा। आरती के एकदम पास आ गया। "मैं तुमसे--" "मुझसे क्या-?"
[प्रकाश कि छवि फ़िर प्रकट हुयी-'कुत्ते की औलाद। अगर अभी नही कहा तो मैं तुझे गंगा में फेंक दूंगा और तेरे गले में पत्थर फ्री में बाँध दूंगा। बोल दे।] "मैं तुमसे प्यार करता हूँ।"
आरती के आँखों में दो बूंद आ गए। दीपक को लगा की उसके पेट में से कुछ निकल गया है। उसने अपने मुंह को अचानक बंद कर लिया। दोनों होंठ अन्दर को भींच लिए। आरती खड़ी रह गयी। कुछ सेकंड ऐसे ही बीत गए। आरती ने खामोशी को तोडा-"मैं भी--"
दीपक खुश होने लगा। उसका मुंह खुलने लगा। "मैं जा रही हूँ। बाय।" कह कर आरती नीचे की और दौड़ गयी। उसकी चाल में एक नयी तेज़ी और नयी मस्ती थी। वो खुश थी। दीपक का मुंह खुला का खुला रह गया। उसने अपने दोनों हाथ अपने कमर पर रखे। एक बार नीचे देखा। फ़िर आरती को देख के एक नटखट सी हँसी निकली-"हः।"
स्टेशन पर।
स्टेशन पर दीपक था। आरती थी। पाण्डेय जी थे। यादव जी थे। प्रकाश था। चाची जी और उषा भी थे। पूरा काफिला आया हुआ था। प्रकाश ने घड़ी देखी "ट्रेन आने में अभी आधा घंटा है। यार दीपक चल जरा बाथरूम हो आए।" "ठीक है चल।" हालाँकि दीपक का मन आरती को छोड़कर (जो लगातार उषा से चिपकी हुई थी) जाने का नही था; मगर फ़िर भी वो प्रकाश के साथ चल दिया। दोनों बाथरूम से निकल के प्लेटफोर्म पर ही टहलने लगे। "तो, बोला की नही!" प्रकाश ने एक पानी की बोतल खरीदी। "क्या बोला-?" दीपक जानता था की प्रकाश क्या पूछ रहा है?
"अबे अब तो स्टाइल मत मार।"
"-" कुछ देर दोनों चुप रहे। दीपक ने अपने दोनों हाथ पैंट के पॉकेट में डाले और कंधे उचकाए-"हा। बोल दिया।"
"क्या बोला?"
"यही कि 'मैं तुमसे प्यार करता हु . '"
"अबे साले ये क्या बोल गया तू? तू मुझसे नही आरती से प्यार करता है। गे कही का!" दीपक ने पटरी की ओर एक कुल्ला फेंका। दीपक को हँसी आ गई-"अरे यार, मैंने उस से कहा की मैं उस से प्यार करता हूँ।"
"हाँ तो ऐसे बोल न। indirect स्पीच में।- फ़िर क्या हुआ?"
"फ़िर क्या हुआ क्या ?---"
"उसने कुछ कहा।??"
"हा- यही कहा की मैं भी-"
"तू भी क्या?"
"अरे यार, मैं नही वो।"
"अच्छा!!"
"उसने कहा कि वो भी।"
"वो भी क्या?"
"अरे उसने बस इतना ही कहा कि वो भी। और फ़िर चली गयी."
"ले, तुझे आधे पर छोड़ गयी; कम से कम पप्पी झप्पी तो लेना था यार . "
आरती बातें तो उषा से कर रही थी। मगर उसकी निगाह दीपक पर ही टिकी थी। तभी ट्रेन आ गयी। यादव जी और आरती को अपनी सीट मिल गयी। सब लोग ट्रेन के अन्दर ही बैठे थे, बस उषा और चाची जी बाहर प्लेटफोर्म पर थे । आरती ने दीपक से कहा-"दीपक जी। मुझे ठंडा पानी लेना है। कहा मिलेगा?" उसने एक बोतल निकाला। दीपक ने कहा- "मुझे दीजिये; मैं लाता हूँ।"
"नही, मैं भी चलती हूँ। जरा हवा में जाने का मन कर रहा है।" मोगाम्बो उस समय मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा था। आरती और दीपक ट्रेन से निकले और प्लेटफोर्म पर आ गए। प्रकाश पाण्डेय जी को कहने लगा- "चाचा जी, अब आप लोग निकलिए। या फ़िर कम से कम चाची और उषा को भिजवा दीजिये। साढ़े ५ बज गए हैं, और ट्रेन ६ बजे के पहले नही खुलेगी। दीपक और आरती पानी के नल की ओर टहलने लगे। आरती ने नल से ठंडा पानी भरा। बोतल बंद किया। और अचानक दीपक को कहा-"मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ। हाथ लाइए . "
"क्या है?"
"नही, पहले हाथ बढाइये।"
दीपक ने अपना हाथ बढाया। आरती ने अपने समीज के पॉकेट से एक कागज का टुकडा निकला। "इसे घर जाकर पढ़ लेना।" इतना कह कर आरती फ़िर वापस मुडी और तेज क़दमों ट्रेन की तरफ़ चली गयी । मन्त्र मुग्ध सा दीपक उस कागज को अपनी जेब में डाल कर उसके पीछे पीछे चल दिया।
आगे क्या हुआ जानने के लिए पढिये -
एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-४

Wednesday, April 15, 2009

एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग २

नमस्कार मित्रों। मैं फ़िर से हाज़िर हूँ, कथा का दुसरा भाग लेकर-
एक दर्द भरी प्रेम कहानी
पूर्व-
दीपक और प्रकाश, जो बनारस में पढ़ते हैं; एक दिन अचानक एक लड़की आरती की जान बचाते हैं। दीपक को आरती से प्यार हो जाता है। पुलिस आरती के जीवन के खलनायक, दुबे को पकड़ लेती है। आरती के चाचा, जो नेपाल में हैं, को ख़बर दी जाती है। पुलिस के निर्देश पर आरती अगले पाँच दिनों तक दीपक के डेरे पर रुक जाती है। अब आगे---
वो पाँच दिन।
पहले तो दीपक के मकान मालिक ने दीपक को अजीब और आरती को अजीबोगरीब नज़रों से देखा। मगर जब प्रकाश ने सारी घटनाएँ सुनाई और शाम को निरिक्षण के लिए पुलिस कि एक महिला कांस्टेबल आई; तब जाकर पाण्डेय जी और उनके घरवालों ने चैन कि साँस ली। पाण्डेय जी कि लड़की उषा ने उसी समय आरती को अपनी मुंह बोली दीदी बना लिया। दीपक पाण्डेय जी को चाचा जी और उनकी पत्नी को चाची जी कहता था। आरती ने भी वही कहना शुरू कर दिया। चाची जी ने उषा के कमरे में है आरती के सोने के लिए एक चौकी बिछा दी।
दीपक आरती से कुछ कहना चाहता था, मगर सब लोगों के सामने कुछ कह नही पाया। रात में प्रकाश, दीपक और आरती के खाने के लिए बनवारी कि दूकान से पुरी और जलेबी ले के आया। चाची जी ने कहा- "खाना लाने कि क्या जरूरत थी? वापस कर आओ। मैंने खीर और दम आलू कि सब्जी बनाई है। सब लोग वही खा लेंगे।"
रात में दावत हुई। चाची जी आरती के लिए अत्यन्त भावुक हो गयी थीं। आरती भी रात भर में ही पाण्डेय जी के परिवार से घुल मिल कर दूध-चीनी हो गयी। खाना खाने के बाद दीपक और प्रकाश छत पर गए। बातों बातों में ही दीपक ने कहा- "देखते हो प्रकाश। रोज़ तो हम लोग बनवारी के दूकान पर जाकर ही खाते थे। आज अपनी आरती मैडम के लिए कुछ ज्यादा ही मेहमान नवाजी हो रही है।"
"तो तुझे जलन क्यो हो रही है बेटे? इस बात से तो नही, कि तुने जो खाना आरती के लिए मंगवाया, वो बेकार हो गया?!!!"
"नही यार, वो तो मैं कल सुबह खा ही लेता। पर आरती खाती तो-----"
"बेटा सुधर जा। वरना बुरा फसेगा। समझा रहा हूँ--"
दीपक ने भोला बनते हुए कहा-"क्या बोल रहा है यार?"
प्रकाश ने अपना हेलमेट उठा लिया-"देख दीपक! प्यार, मोहब्बत और कोका कोला कि बातें दोस्तों से कभी नही छिपती. आराम से सो जा। कल कॉलेज जाना है। वैसे आज का पुरा दिन तेरी आरती मैडम और दुबे जी के पीछे बर्बाद हो गया है। मैं चला गंगा किनारे-"
इतना कह कर प्रकाश तो चला गया। मगर उस रात २ बजे तक दीपक को नींद ही नही आई। वो हमेशा सोचता रहा- "क्या आरती सो गई?"
अगले दिन सुबह जब दीपक प्रकाश के मोटर साइकिल पर बैठ कर कॉलेज जाने लगा, तब आरती छत पर अपने कपड़े पसार रही थी। दीपक कि नज़रें उधर ही थी। आरती ने अलने पर अपना दुपट्टा पसरा, और उसी दुपट्टे में छिपने कि कोशिश करते हुए दीपक को एक तिरछी नज़र से देखा। दीपक का हाल बुरा हो गया। झेप उसके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। आरती मुस्कुरा पड़ी। दीपक उसकी मुस्कराहट देखके फ़िर से खो गया। तभी प्रकाश ने मोटर साइकिल स्टार्ट कि। दीपक आरती का मुस्कुराता हुआ चेहरा लेकर ही कॉलेज पहुँच गया।
रात में फ़िर चाची जी ने आरती के लिए दावत मनाई। दीपक और आरती के बीच हा हूँ के अलावा कोई और बात ही नही हो पाई। दीपक आरती को अपने दिल कि बात बताना चाहता था। मगर आरती कभी अकेली नही होती थी। कभी चाची जी के साथ उनके किचेन में, तो कभी उषा के साथ। उषा कि बच्ची तो आरती का पीछा कभी छोड़ती ही नही थी। दीपक छत पर वाले कमरे में रहता था। आरती कभी कभी छत पर आती, तो उषा भी उसके पीछे पीछे आ जाती थी। तीसरे दिन भी यही हाल रहा। दीपक आरती के प्यार में पागल हुआ जा रहा था। और ज़माने को इसकी ख़बर भी न थी। मगर प्रकाश ज़माने से बाहर था। शाम को जब दोनों बनवारी कि दुकान पर चाय पी रहे थे, तब प्रकाश ने कहा- "यार, देख। आरती से प्यार व्यार कि आस मत लगा."
" तू फ़िर से ये बकवास कर रहा--"
" बेटा, मान जा। मैं सच कह रहा हूँ।"
"तभी मानूंगा, जब तू मेरे साथ होगा।" दीपक ने आख़िर अपनी बात कह ही दी।
प्रकाश जोर से हंसा- "हा हा हा हा हा ! साले, मैं तो तेरे साथ ही हूँ। मगर तेरे भले के साथ हूँ। और तुझे लग रहा है कि मैं तुझे उपदेश दे रहा हूँ।"
"हा। और मैं चाहता हूँ कि तू मेरे मन का साथ दे। क्योंकि इसी में मेरा भला है।"
"अच्छा??!!?"
"अरे यार, मैं तीन दिन से ठीक से सोया नही हूँ। जब भी उसका चेहरा देखता हूँ, तो अपने जिन्दा रहने पर शर्म आती है। सोचता हूँ कि--"
"अबे बेटे तू तो शायराना हो गया। हे प्रभु। हे बाबा विश्वनाथ, मेरे यार कि रक्षा करना।"
कुछ देर दोनों इसी तरह बतियाते रहे। अचानक जब दीपक चाय- नाश्ते का बिल भर रहा था, तो प्रकाश बोला- "यार, जाके उसे सब कुछ बता दे। ऐसी बातों को दिल में रखना सेहत के लिए अच्छा नही। "
"क्या बोल रहा है?"
प्रकाश अपनी मोटर साइकिल पर सवार हुआ, और हेलमेट पहनते हुए बोला- "अगर चूम ले, तो झूल जा। और अगर थप्पड़ मार दे, तो भूल जा। वैसे भी कल उसका चाचा, यादव नेपाल से आ रहा है। फ़िर वो नेपाल चली जायेगी और तू हाथ मलता रह जाएगा।"
अगले दिन सुबह प्रकाश आरती को लेने आया। उसे ये जानकर अचरज हुआ कि दीपक ने न तो अब तक आरती को अपने दिल कि बात बताई, न ही उसे उसके चाचा के आने कि ख़बर दी। मामले को सँभालते हुए प्रकाश ने आरती को कहा- "आरती जी, जल्दी से तैयार हो जाइये। आपके चाचा जी ट्रेन से आ रहे हैं। दो घंटे में, ९ बजे गाड़ी स्टेशन पर पहुँच जायेगी।"
आरती बड़े ही अनमने ढंग से तैयार हो गयी। प्रकाश के साथ गाड़ी पर बैठ के स्टेशन चली गई। दीपक ऑटो रिक्शा से पहुँचा। सवा ९ बजे ट्रेन आई। चाचा जी देखने से ही हिटलर टाइप लगते थे। छोटा सा सवा ५ फ़ुट का, मोटा सा शरीर। कुरता पायजामा। बंड्डी। अमरीश पुरी और गोगा कपूर के बीच कि आवाज़। प्रकाश दीपक के कान में फुसफुसाया- "बेटा हो गई तेरी शादी आरती के साथ। भूल जा कि ये मोगाम्बो कभी खुश होगा."
चाचा जी आरती से ऐसे मिले जैसे उन्हें पता हो कि ब्रह्मा ने इसी तरह मिलना तय किया था। आरती भी चाचा जी से मिलके बहुत खुश नही नज़र आई. फ़िर भी दोनों के चेहरे पर मुस्कराहट कबड्डी खेल रही थी.
अगले दिन शाम को वापसी कि गाड़ी थी. बनारस से सीधा रक्सोल. तब तक चाचा जी ने बनारस घूमने कि योजना बनाई। दीपक, प्रकाश, आरती और चाचा श्री यादव जी रात के ९ बजे तक बनारस घूमते रहे. रात में वापस आने पर ही यादव जी, पाण्डेय जी के परिवार से मिले. दीपक का उदास चेहरा देखकर प्रकाश ने उसके कान में कहा- "जय हो बाबा विश्वनाथ. तुम्हारी माया अपरम्पार है."
आगे क्या हुआ?
जानने के लिए पढिये- एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-3.

Tuesday, April 14, 2009

दो कवितायें.

नमस्कार मित्रों।
यहाँ पर मैं स्व-रचित दो कवितायें लेकर उपस्थित हूँ। आशा है की आपको पसंद आएँगी। अगर पसंद आए तो अपने विचार लिखिए। अगर पसंद न आए, तो अपनी आलोचनाये लिखिए।


जब से तुम बिछुडे।
तेरे मेरे मिलने का वो साल पुराना बीत गया।
जबसे तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया॥

एक नदी थी, एक था पीपल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
लहरों से छैंया तक का वो दौड़ लगाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

एक थी बरखा, एक था बादल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
सावन की छम छम बूंदों में धूम मचाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

एक हवा थी, एक था जंगल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
पंख पसारे पत्तों के संग उड़ उड़ जाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

-----प्रिय रंजन----
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जीवन की तलाश।
जीवन! तू कहाँ है?

क्या यहाँ है?!--
जहाँ भूखे के पेट में रोटी नही है,
जहाँ प्यासे के हाथ में पानी नही है;
जहाँ भूखे मांगते हैं
और पेट -भरे लूटते हैं,
प्यासे अरमान से निहारते हैं
और गले-तरे नहाते हैं--
डुबकियां लगाते हैं;---
ऐसे यहाँ
अन्तर की इन्तेहाँ है!
और सब कहते हैं --- "तू यहाँ हैं!"

जब तुझे देखा था अमीर के बच्चे में,
तब क्या तू गरीब के बच्चे में नही था?
जब तेरी ठाठ देखी थी बड़ी सी कार में,
तब क्या तू
किसी पैदल
चप्पल चटकाते बेरोजगार में नही था?
---नही--
तू कहीं नहीं है।
कोई भूख से मरता है - कोई कब्ज़ से।
कोई प्यास से मरता है - कोई घुल के।
किसी के शरीर में खून ही नहीं -
कोई प्रेशर से रुक जाता है;----
हर आने वाला जाता है।
सब और मृत्यु की ही जय है
फ़िर भी सब को तुझसे स्नेह,
और मृत्यु से भय है।
जानते ही नहीं हैं---
की ये मृत्यु का राज्य है।
यहाँ तेरा ठिकाना कहाँ है?
फ़िर भी कयासों में चिल्लाते रहते हैं-----
"तू यहाँ है।"
"तू यहाँ है।"


------प्रिय रंजन----

धन्यवाद.

नमस्कार मित्रों।
आप लोगों ने मेरी कहानी- "एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-१" को खूब पसंद किया। इसके लिए धन्यवाद्।
जल्द ही इस कहानी की दूसरी कड़ी भी आपके लिए प्रस्तुत करूँगा। आशा है, की अगला भाग भी आपको जरूर पसंद आएगा।
तब तक कुछ अपनी बात की जाए।
दोस्तों, मेरा नाम प्रिय रंजन है। पिताजी का नाम श्री शम्भू नाथ पाण्डेय और माताजी का नाम श्रीमती लीला पाण्डेय है। मैं किसी एक जगह का नही हूँ। मगर मूल स्थान है ग्राम- रोहना, प्रखंड- वैशाली, जिला- वैशाली; राज्य - बिहार। मेरा जन्म स्थान बिहार के ही गया जिले में है। मगर मैं वैशाली के ही पड़ोस में मुजफ्फरपुर जिले में पला बढ़ा हूँ। मुजफ्फरपुर के भगवानपुर मुहल्ले में हमारा मकान है। दो मंजिला। ऊपर के मंजिल पर हम लोग ख़ुद रहतें हैं और नीचे के कमरे किराये पर लगा के रखते हैं। मैं २३ वर्ष की उमर में सरकारी नौकरी में लगा। आयकर विभाग ने मुझे महाराष्ट्र का पता दे दिया और मैं आ गया "राज ठाकरे" के नाक के नीचे- अहमदनगर; वही जिला जहाँ साईं बाबा का प्रसिद्द स्थान- शिर्डी है। जेब में कुछ पैसे आए, तो पास में कंप्यूटर हो गया। फ़िर बचपन की दबी हुई आस जागी- लेखक बनने की। सो ब्लॉग पर आ गया।
मित्रो मैंने अपने नाम में उपनाम - पाण्डेय, नही लगाया। मगर महाराष्ट्र में लोग बिना उपनाम के नाम नही समझते। उन्होंने मुझसे पूछा- "भाउसाहेब, ये क्या? आपने औदनाम (मराठी- उपनाम) नही लगाया। क्यो?"
मैंने कहा- " श्री राम जी को क्षत्रिय कहलाने के लिए सिंह और श्री वशिष्ठ जी को ब्रह्मण कहलाने के लिए पाण्डेय की कभी जरूरत नही पड़ी; तो फ़िर हम कलयुगी मनुष्य क्यो उपनाम के पीछे अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं?"
वैसे महाराष्ट्र में लोगों के उपनाम बड़े ही मजेदार होते हैं- वाघ, वाघमारे, लोंढे, शिंदे, आप्टे, लवांदे, कारभारी, कचरे, घोडे, घोडपडे, इत्यादि इत्यादि। पहले तो मुझे ऐसा लगा की वाघ और वाघमारे के खानदानों के बीच कोई पुरानी खानदानी दुश्मनी तो नही(?), जिस कारण ऐसा नाम रखा है? कचरे नाम का आदमी जब पहली बार मेरे सामने आया, और उसने मुझे अपना नाम बताया तो उस दिन रात भर मेरे पेट में दर्द होता रहा।
वैसे महाराष्ट्र के लोग बड़े सीधे, सरल, सहयोगी और मजेदार होते हैं। मैं यहाँ के नौजवानों से खूब घुल मिल गया हूँ। और हमारी दोस्ती चल निकली है। क्या आप भरोसा करेंगे? एक बिहारी मराठी लड़को का परम मित्र बन चुका है।
अब जरा बिहार की बात भी हो जाए। मेरे घर में मेरे माता- पिता और मेरी दो बहने हैं। एक मुझसे बड़ी है, और दूसरी मुझसे छोटी है। दीदी की शादी मुजफ्फरपुर जिले में ही हो गई है। जीजा जी भी सरकारी नौकरी में हैं, और मजे की बात है की महाराष्ट्र में ही हैं। बिहार मेरा घर है, तो यु समझिये की महाराष्ट्र डेरा। बिहार में मैं पैदा हुआ, और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे लगता है की बिहार इस समय भारत का सर्वाधिक संभावनाओ वाला राज्य है। बिहार के लोगों के जैसे मीठे लोग, और बिहार की भाषाओ की जैसी मिठास कहीं और बड़ी मुश्किल से मिलती है। असल में बिहार के बारे में सबसे अच्छी बात मुझे यही लगती है - भाषाएँ। भोजपुरी, मगही, मैथली, अंगिका, वज्जिका, संथाली। वैसे पुरी दुनिया में एक नयी बोली (जो हिन्दी की , मेरे समझ से , सबसे मीठी बोली है) की बड़ी जोर से चर्चा है- बिहारी। बिहारी में अगर आपको ये कहना है की आपको भूख लगी है तो आप कहेंगे- "हमको भूख लगा है।" न की -"मुझे भूख लगी है।"
मेरे शहर मुजफ्फरपुर की एक बड़ी जबरदस्त प्रसिद्धि है। और उसका नाम है- "लीची"। लीची की खटास और मिठास मेरे राग राग में बस गयी है। यहाँ महाराष्ट्र में बिहार की मात्र वही एक चीज है, जिसकी इन गर्मियों के दिनों में बरी जोर से याद आती है।
मित्रों, अभी अपन चलते हैंगे। अगली बार जब मिलूँगा तो मेरे साथ में होगी- 'एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-२'।
तब तक के लिए धन्यवाद और नमस्कार।
हम हैं राही बेकार के , फ़िर मिलेंगे, भागते दौड़ते।

Thursday, April 9, 2009

एक दर्द भरी प्रेम कहानी. भाग १.

दीपक और प्रकाश।
दीपक और प्रकाश दोनों साथ साथ बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ते थें। दोनों फिलोसोफी यानी की दर्शन विषय से पोस्ट ग्रेजुएट, यानी की पारा स्नातक की पढ़ाई कर रहे थें। दोनों में गहरी दोस्ती थी। दोनों एक ही बिस्तर में खाते और एक ही थाली में सोते थे। अरे रे रे। गलती हो गई, एक ही थाली में खाते और एक ही बिस्तर में सोते थे। घबराइये नही। दोनों के बीच सिर्फ़ दोस्ती थी, कोई दोस्ताना नही था। हा हा हा। दोनों दिन भर एक साथ कॉलेज में क्लास किया करते, और शाम में बनारस की गलियों में घुमने निकल जाते। दीपक के पिताजी पटना जिले के एक प्रसिद्ध व्यवसायी थे और प्रकाश के पिताजी सिवान जिले के एक छोटे से गाँव में प्रधान अध्यापक थें।
दोनों की दोस्ती खूब जम रही थी। और दोनों मन लगा के पढ़ाई भी कर रहे थे। दोनों की सबसे बड़ी खूबी ये थी की दोनों किसी भी अनजाने की, जो जरूरत में हो, मदद करने से कभी कतराते नही थें। हाँ, प्रकाश कभी कभी विकट परिस्थिति देखकर घबरा जरूर जाता था।
शनिवार की रात, गंगा किनारे।
एक बार दीपक और प्रकाश गंगा की आरती देखने गए। दशास्वमेध घाट पर भरी भीड़ लगी थी। शनिवार की शाम थी, और अगले दिन कॉलेज नही जाना था। इसलिए आरती ख़त्म हो जाने के बाद भी देर रात तक दोनों गंगा के घाट पर बैठे, गप्पे लड़ा रहे थें। बातें करते करते रात के १२ बज गए, और फ़िर भी उनका मन वह से हटने को नही हुआ। वे बातें करते करते कभी घाट की सीढियों को देखते थे, कभी गंगा जी के लहराते पानी को। गंगा में नाव और स्टीमर का आना जाना तो ११ बजे से ही बंद हो गया था।
अचानक सवा १२ बजे के स्टीमर गंगा में आयी। दोनों को इतनी रात में स्टीमर देखके थोड़ा अचरज हुआ। दोनों उधर ध्यान देने लगे। तभी उन्होंने देखा की कुछ लोगों ने स्टीमर पर से किसी व्यक्ति को पानी में धक्का दे दिया है, और वो व्यक्ति सिर्फ़ इशारे से अपनी रक्षा की गुहार लगा रहा है, मगर चिल्ला नही रहा है। दोनों ने चारो तरफ़ देखा, घाट पर दूर दूर तक कोई नही था। स्टीमर दान दनते हुए भाग खड़ी हुई। दीपक और प्रकाश ने आव देखा न ताव, और गंगा में छलांग लगा दी। १५ मिनट के लगातक तैराकी के बाद, उन्होंने उस आदमी को खींच के बहार निकला। वो एक लड़की थी।उसके मुंह पर एक पतली सी पट्टी बंधी थी। लहरों के बीच, वो लड़की दीपक के बाहों में बेहोश पड़ी थी, और प्रकाश उनके पास ही तैर रहा था। उस लड़की को देख के दीपक के होश उड़ गए। ऐसी खूबसूरत लड़की उसने जीवन में पहले कभी नही देखि थी। वो तैरना भूल गया। ये भी भूल गया की उसे उस लड़की को बचाना है। वो तो बस उस लड़की को अपनी बाहों में लिए था, और उसके चेहरे को देखे जा रहा था। शायद बनने वाले ने अपने बनाने का सांचा, उसे बनाने के बाद तोड़ ही दिया था। या फ़िर उसे किसी सांचे में गधा ही नही था। शायद शनिवार की रात में फुर्सत से बैठ के, की कल तो छुट्टी है, कुछ नया किया जाए; प्यार से बनाया था।
प्रकाश ने कहा- दीपक, चल। लेके चल उसको।
मगर दीपक ने कोई जवाब नही दिया। वो अपने होश खो बैठा था। स्थिति की गंभीरता को पूरा समझे बिना, प्रकाश ने दीपक और उस लड़की को खींच, और खींचते हुए ही घाट तक ले गया।
घाट पर प्रकाश ने दीपक से छुडा के उस लड़की को लेटाया, और दीपक से बोला- 'बच गयी।'
दीपक जैसे पागलपन में ही बोला-'मेरे लिए,--'
प्रकाश को अब समझ में आया- ' पागल हो गया है क्या? पता नही कौन है? क्यो है?.... '
'जो भी है, सबसे खुबसूरत है।'
'दीपक, बेटा तू चल यहाँ से, फ़िर मैं तुझे बताता हु।'
'नही यार, इसे होश में लाओ'
'होश में?, बेटा तू तो बेहोशी में ही इसी के साथ गंगा मैया में जल समाधि लेने वाला था। अब चल यहाँ से, लड़की का मामला है। खतरा है।'
प्रकाश ने और भी कई तरह से दीपक को समझाने की कोशिश की, मगर वो माना नही। दीपक ने उस लड़की के पेट पर दोनों हाथ रखे के जोर जोर से दबाना शुरू किया, और वो लड़की अपने मुंह से पानी के कुल्ले फेंकने लगी।
प्रकाश बोला- 'देख, अब इसे होश आ रहा है। अब चलते हैं यहाँ से।'

आरती।
होश में आने के बाद, पहले तो उस लड़की ने कुछ देर तक कुछ नही कहा और सिर्फ़ रोती रही। उसको रोते देखके दीपक उसे चुप हो जाने के लिए कहने लगा और प्रकाश ने कहा- 'नौटंकी साली, चल यार चलते हैं यहाँ से।'
दीपक ने कहा-' देखिये, आप अगर हमें कुछ बतायेंगी नही तो हम आपकी मदद कैसे करेंगे?'
मगर वो सिर्फ़ रोती रही। फ़िर दीपक भी प्रकाश की बात मान गया और वहां से जाने लगा। तभी उस लड़की ने दीपक का हाँथ पकड़ के उसे रोका और बोली- 'रुकिए, मुझे अकेली छोड़ के मत जाइए, प्लीज।'
दीपक रुक गया। उसकी आवाज तो उसके रूप से भी ज्यादा सुंदर थी।
फ़िर प्राश ने उसे पीने के लिए पानी दिया। उस लड़की ने कुछ सहज होने के बाद, पहले उन दोनों का शुक्रिया अदा किया और अपना नाम बताया-'आरती।'
'मैं दीपक और ये मेरा फ्रेंड प्रकाश।'
आरती ने उन्हें बताया की वो नेपाल के वीरगंज इलाके से आई थी। किसी सत्यनारायण दुबे ने उसे काम देने के बहाने बनारस बुलाया। मगर संयोग से आरती को मालूम चल गया की दुबे का असली धंधा लकडियों का नही, बल्कि लड़कियों का है। आरती ने उसके changul से भागने की कोशिश की, तो उसके आदमियों ने उसे अस्सी घाट के पास किसी आइस- क्रीम के गोदाम में बंद कर दिया, जहाँ उसी जैसे और भी कई लड़किया बंद थीं। वहां आरती को कहीं से एक मोबाइल फोन मिल गया, जिसके द्वारा उसने नेपाल अपने चाचा मंगत राम जाधव को सब बातें बता दी। मगर ये बाद दुबे को पता चल गया।
जाधव चाह के भी आरती को ना खोज सके, और दुबे का पता किसी को न चले, इसलिए दुबे ने आरती को मार डालने की योजना बनाई, और उसे गंगा में फेंक दिया। मगर---
पकड़ा जाना दुबे का।
दीपक और प्रकाश, आरती को लेकर उसी वक्त पुलिस स्टेसन गए। वहां सब बात बताई। आरती ने दुबे के अड्डे और उस आइस- क्रीम गोदाम का भी पता बताया। सुबह होने से पहले ही सारे गुंडे पकरे गए। गोदाम से १४ लड़कियां बचें गयी। अगले दिन दोपहर में सत्यनारायण दुबे को पुलिस ने इलाहबाद के पास एक देसी कटते और दो किलो गांजे के साथ पकड़ा। इस तरह दुबे के एक और धंधे का पता चला, ड्रग्स के धंधे का। शाम के समय पुलिस स्तासन में शिनाख्त के लिए दीपक और प्रकाश आरती को ले गए। जहाँ आरती ने दुबे की पहचान की। दुबे ने आरती और दीपक को कहा- ' समय बितला पर बुझाई बबुआ, की तू केकरा आग में घी दे देला।'
पुलिस ने कहा की आरती के चाचा को ख़बर कर दी गयी है, और वो ४-५ दिनों में बनारस आ जायेंगे। तब तक आरती के देख रेख की जिम्मेदारी दीपक और प्रकाश पर आ गयी। दीपक प्रकाश के मना करने के बावजूद, आरती को अपने डेरे पर ले गया। प्रकाश होस्टल में रहता था। मगर उन ५ दिनों में वो बार बार दीपक के घर आया करता था। एक बार दीपक ने मजाक में ही कहा- 'साले, तू बार बार मेरे घर पर क्यों आता है? तुझे क्या लगता है, मैं उसका रेप कर दूना?'
प्रकाश ने कहा- 'बेटा, आज बोले हो। फ़िर कभी मत बोलना की मुझे तुम पर भरोसा नही है। मैं तो उस लड़की पर भरोसा नही करता। याद रखो, त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम;;;;....---'
दीपक ने हँसते हुए कहा-' देवो न जानती, कुतो भविष्य? हा हा हा हा।'

आगे क्या हुआ? जानने के लिए, पढ़ते रहिये,
एक दर्द भरी प्रेम कहानी। भाग-२ में।

मित्रों, इतना तो पता चल ही चुका है की आरती एक वक्त की मारी बेचारी अबला नारी है। दीपक उस पर फ़िदा है। शायद उससे प्यार करता है। प्रकाश को ये सब थोड़ा अजीब और खतरनाक भी लग रहा है। अगले ५ दिनों तक आरती दीपक के घर पर रही और ५वे दिन उसके चाचा नेपाल से बनारस आ गए। आगे की कहानी बाद में लिखी जायेगी। मगर अब तक की कहानी आपको कैसी लगी? अपने कमेन्ट मुझे जरूर भेजे। मुझे इंतज़ार है।
तब तक के लिए-
हम हैं राही बेकार के, फ़िर मिलेंगे; भागते दौड़ते ।।

Tuesday, April 7, 2009

श्रीमद् भगवद्गीता.


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु।
m नित्यं ते प्रतिजाने प्रियोशिमे।।

Thursday, March 26, 2009

मेरी वैशाली यात्रा.


स्वागतम -

तो प्रभु लोग, अपन आ गए आप से अपनी बातें बतियाने। आप सब लोगो का हार्दिक अभिनन्दन और सुस्वागतम।

मेरा परिचय- 1

बन्दे को प्रिय रंजन कहा जाता है, और भी बहुत सारे लोग भांति भांति के चित्र - विचित्र नामों से पुकारते आ रहे हैं। सो आप लोग भी पुर्णतः स्वतंत्र हैं, जो मन में आए सो नाम लेकर पुकारिए। हमारे दादा जी हमें रवि रंजन, दादी जी विरंजन, चाचा-चची-मौसा-मौसी-बुआ-फूफा-मामा-मामी रंजन, गाँव के अनपढ़ लोग 'गोर लगी बावा', गाँव के ही पढ़े लिखे लोग पिरिये रंजन, स्कूल की शिक्षिका लोग प्रिया रंजन, स्कूल के लडकें प्रिय रंजन और स्कूल की लड़कियां पिया रंजन कहके अपने अपने जिह्वा का तमाशा दिखाया करते थें। आप लोगों के जो मन में आए सो कहिये- 'यथेच्छसि तथा कुरु' ।

मेरा गाँव-

बन्दे का गाँव बिहार के वैशाली जिले में रोहना नाम से जाना जाता है। इस गाँव से २ किमी की दूरी पर ही प्राचीन वैशाली राज्य और वज्जी संघ के भग्नावशेष मिल जातें है। अशोक का खम्भा, जिसे लोग बाग़ सम्राट अशोक का स्तम्भ भी कहते हैं; और गाँव वाले 'भीमसिंह की लाठी' के नाम से मशहूर करते हैं; मेरे रोहना गाँव से ४.५ किमी की दूरी पर है। ठीक बीच में करीब ३ किमी की दूरी पर जापानी, चीनी, ताईवानी और अन्य बौध देशों के लोगों ने अपने अपने मठ और ठिकाने बना रखे हैं। मेरे गाँव से करीब ७ किमी की दूरी पर ही २४वे जैन तीर्थंकर, भगवान् वर्धमान महावीर का जन्मस्थान, कुंडग्राम भी है। इस तरह देखा जाए तो देखने वाली बात ये है, कि मेरे गाँव के आस पास का पूरा इलाका देखने लायक है। अब यही कि इस बार होली के छुट्टियों में मैं जरा अपने गाँव निकल गया। तो देखा की इतने दिनों बाद आया हूँ तो जरा देख लिया जाए की वैशाली कितनी सुंदर है।

वैशाली भ्रमण-

१। ये है(chitr me) विश्व शान्ति स्तूप- जिसे जापान सरकार के सहयोग से बौद्ध धर्म गुरु- श्री फूजी गुरूजी ने बनवाया था। १९९२ में बनना शुरू हुआ और १९९८ में बनकर पूरा हुआ। ये शान्ति स्तूप (पैगोडा) ३८ मी उंचा है। यह स्तूप वैशाली जिले के चक्रम्दास गाँव में स्थित है।

२। अशोक का खम्भा। इसे सम्राट अशोक ने अपनी तीर्थ यात्राओं के स्मारिका के तौर पर बनवाया था। ये मुजफ्फरपुर जिले के कोल्हुआ गाँव में स्थित है।

३।ढाई हज़ार साल पुराना स्तूप। असल में भगवान् बुद्ध के मृत्यु के बाद उनके फूलों (भस्म) पर २१ स्तूप बनाए गए थे। यह स्तूप उन २१ स्तूपों में से एक है। खुदाई के द्वारा पुरातत्व विभाग को यहाँ से भगवान् बुद्ध के फुल मिले, जिसे पटना संग्रहालय में रखा गया है। ये स्तूप विश्व शान्ति स्तूप के पास ही, चक्रम्दास गाँव में ही स्थित है।
और भी बहुत सारी चीजें देखीं, मगर उनका फ़िर कभी जिक्र करेंगे।
अभी अपन चलते हैंगे। भैये, जिन जिन महानुभावो को मेरी यात्रा अच्छी लगी, वे लोग कमेन्ट पास करो; और जिन जिन दिव्यत्माओं को ये पसंद नही आई, वे लोग भारी भारी कमेन्ट मारो। मेरा ब्लॉग सब कुछ सहने और आप यार लोगों से दिल की बात करने को बेताब है।
तो गुरु- हो जाए शुरू।