Friday, November 18, 2011

एक दर्द भरी प्रेम कहानी : भाग- ६

दिनांक ५ दिसंबर, २०११.
स्थान- धेरहरा ग्राम, रसूलपुर प्रखंड, थाना- रसूलपुर, जिला- छपरा. 
निवास स्थान- श्री जगनंदन तिवारी जी. 
[नाम तथा पते काल्पनिक हैं, ढूँढने मत चले जाना कोई; अभी ५ तारीख में टाइम है]

आज तिवारी जी के सुपुत्र प्रकाश की शादी है; बनिहाल के पंडित राम-शुकुल मिसिर(राम शुक्ल मिश्र) की लड़की जोती(ज्योति नाम है, बिहार के गाँव में लोग इसी तरह शब्दों का उच्चारण करते हैं, मजे लीजिये) के साथ | बी ए पास है, अंग्रेजी साहित्त(साहित्य) से | बरियात (बारात) चलने की तैयारी हो रही है, खूब चहल पहल है| और दुल्हे को देख लीजिये, मोबाइल पर लगा हुआ है | वैसे लड़का नोकरी में है, परफेसर (प्रोफेसर) है | समझ लीजिये कि तिवारी जी छाप के लिए हैं |

[१]
बारात चलने का नियत समय ४ बजे था, और साढ़े ४ में तो दीपक पंहुचा है; लेट तो होना ही था| तवेरा लाल रंग की ही है, मगर गोल्डेन गोटे और गेंदा के फूलों से सजने पर बहुत ही शानदार लग रही है | प्रकाश ने अपने पिताजी को कहा -"बाबा! आप पीछे वाला पिलक्का (पीला) मारुती में बैठ जाइए| बनिहाल आने पर फिर इसमें चढ़ जाइएगा; हमको दीपक से बतियाना है|"
बाबा हँसते हुए मारुती में बैठ गए|
गाड़ियों का काफिला जब धेरहरा हाई स्कूल से आगे बढ़ा तब प्रकाश ने दीपक से कहा- "साले, हमारे बियाह में आ रहे हो, कम से कम दाढ़ी तो बना लेते |"
"अबे साला!" दीपक ने कहा, और तुरंत अपने पास पड़े हैण्ड बैग से जेल और रेजर निकला| अगली सीट के पीछे लगा रेयर व्यू मिरर खोला और फटाफट चलती गाड़ी में ही दाढ़ी बनाने लगा - "इतना लक्जरी वाला गाड़ी कैसे भेटा गया भाई?"
प्रकाश ने बाहर भागते पेड़ो की तरफ देखा- " ससुर जी ने ठीक करवा के दिया है ...."
"अच्छा बेटा! आज से ही ससुर 'जी' और बाबाजी पीछे पिलक्का मारुती में बैठे हैं...."
"हा हा हा! अब ठीक से दाढ़ी बना, नहीं तो कट कटा गया तब ठीक नहीं होगा "
"अबे, चेहरे का क्या है?! सामान नहीं काटना चाहिए बस...., और बता, क्या बात करनी थी मुझसे?"
प्रकाश एक सेकंड के लिए सामने सड़क पर देखने लगा, फिर ड्राईवर से बोला- "आगे परबस साह का दूकान है न, वहाँ रुकना और एक पैकेट चिल्गम ले के आना |" 
ड्राईवर, दीपक, बाबाजी और बाकी के बाराती अचरज में पड़ गए, कि दुल्हे को अभी चिल्गम खाने कि क्या सूझी? ड्राईवर चिल्गम के साथ साथ दो बोतल पानी भी ले आया, एक बोतल से प्रकाश ने गला साफ़ किया, और दुसरे से दीपक ने चेहरा | "अब लग रहे हो न कि दूल्हा का दोस्त आया है! चचेरी-ममेरी सब मिला के कुल ११ सालियाँ हैं; बवाल कर देना है बनिहाल में!" प्रकाश ने मसखरी की|
सह्बोली बना हुआ मामाजी का लड़का सुमन, जो अभी ७ साल का ही है, और सालियों का मतलब नहीं समझता, जोश में बोला- "भैया! आपके सब साली सब को हम अकेले ही संभाल लेंगे, आप चिंता मत कीजिये|" 
उसका तोतला जोश देख के दीपक जोर से हँस दिया, "हा हा हा हा हा! अरे सुमन, खाली इतना ख़याल रखना कि कोई तुम्हारे भैया का जुतवा गायब ना कर दे; ३ हजार रुपया का एक ठो है| समझे|"
सुमन बोला- "हूँ!"
फिर दीपक वापस तवेरा में बैठता हुआ बोला- "दोनों का कितना हुआ? बताओ-"
सुमन वापस आगे की सीट पर कब्ज़ा जमाते हुए बोला- " तीन का तीन, तीन दुनी छौ! ६ हजार का..."
"तब देखा कितना महंगा है? ध्यान रखना."
प्रकाश चिल्गम चबाते हुए वापस अपने जगह पर बैठ, तो सुमन बोला- "अरे भैया! हम हैं न, कोई साली का हिम्मत नहीं है, कि हमारे नज़र के सामने से जूते को हाथ भी लगा सके| पिछला सोमबार के मैच में हम करुनेसवा(कोई करुणेश नामक बच्चा) के बौल पर ऐसा छक्का मारे थे कि टुनटुन सिंह के बँसवारी में जा के गिरा था| 
अब जूते का करुणेश के गेंद और टुनटुन सिंह के बांस के बागीचे से क्या लेना और क्या देना? मगर इसी तरह बकवास बाते करते हुए दोनों भाई, ड्राईवर और दीपक जब  फुलवरिया चौक पार हुए, तब अचानक ही प्रकाश बोला- "दीपक! बनिहाल में ठीक से रहना, वह १ दिन का मरजाद (शादी के बाद भी १-२ दिन बारात के रुकने कि प्रथा) है|"
"हाँ! तो!? इसमें ठीक से रहने का क्या मतलब?"
"ठीक से इसलिए कि तुम कही इधर उधर मत चले जाना..."
"अरे यार! हम इधर उधर क्यों जाएंगे?" दीपक ने देखा कि बहुत बात करने से थक चूका सुमन आगे के दोनों सीट के बीच के रस्ते से पीछे आ गया और दीपक और प्रकाश के बीच में पसर के सो गया- "भैया, हमको नींद आ रहा है| अभी सो लेते हैं, बाद में तो रात भर जागना ही है|"
गाड़ी अब पूरे रफ़्तार पर थी, दीपक ने खिड़की खोली| रात होने लगी थी, ठंडी हवा जो छन के अन्दर आ रही थी, वो ए.सी. से ज्यादा सुखद थी| दीपक ने हवा का पूरा मजा लेने के लिए बहार सर निकाला| उसके बाल फहराने  लगे| उसने आगे देखा, सड़क दौड़ रही थी | बगल में देखा, पेड़ों और खेतो के झुण्ड भाग रहे थे | पीछे देखा, एक पिली मारुती ८००, दो बोलेरो - एक क्रीम और एक नीली रंग की और एक अमर-ज्योति ट्रावेल्स की नारंगी रंग की डीलक्स-विडिओ-कोच-बस पूरी सिद्दत से पीछा कर रहे थें| 
हवा के झोंको के दबाव के कारण, या फिर किसी और कारण से अचानक दीपक के आँखों में पानी आ गया और उसने झट से अपने सर को वापस अन्दर खींच लिया |
प्रकाश जो सुमन को हलकी हलकी थपकिया दे रहा था, बड़े आराम से बोला- "आरती आज तुमको बनिहाल में मिलेगी "
दीपक अपने आँखों को पोंछना भूल गया और उसने एक पल भर को प्रकाश को देखा, और फिर सामने कार के शीशे से दिख रहे भागते हुए सड़क कि और देखने लगा| उसके दिमाग ने शायद काम करना बंद कर दिया था| वो ये भी नहीं सोच पा रहा था कि क्या बोले, या क्या प्रतिक्रिया दे| उसे अन्दर ही अन्दर गुदगुदी हुई, और वो अचानक बड़े जोर से मुस्कुरा पड़ा(जी हाँ! मुकुराया भी जोर से जाता है और धीरे से भी) और दीपक कि ओर मुखातिब हुआ- "हैं! ये तो खुशखबरी हो गयी बे!तुमको कैसे पता चला? कहा है? कैसी है? क्या बोल रही थी?...."
"ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है; उसकी शादी हो चुकी है" प्रकाश ने अपने तरफ की खिड़की खोली और चिल्गम बहार फेंका|
   ड्राईवर ने आगे खाली रास्ता देख कर रफ़्तार और बढ़ा दी|

[२]
मैं आजकल ज्यादा देर इस ब्लॉग को नहीं दे पाता, मगर इसे पूरा जरूर करूँगा| दोस्तों, ऑफिस में व्यस्तता बढ़ गयी है, और दिमाग में ये कहानी भी तेज रफ़्तार से बढ़ रही है| अब ये रुकने वाली नहीं | बस पढने के लिए तैयार रहिये-
"एक दर्द भरी प्रेम कहानी : भाग- ७"


Monday, September 19, 2011

एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-५

[देरी के लिए क्षमा मांगता हूँ मित्रो| माफ़ कर दो, लो मैं आ गया-]
पूर्वापर-
दूबे के चंगुल से छूटी  हुई आरती और दीपक में प्यार हो गया, और अपना दीपक उसके पीछे पीछे नेपाल तक चला गया | मगर आरती ने जो पता दिया था, वो गलत निकला| गयी तो कहाँ गयी??-
ज़िन्दगी 
१.
दीपक और प्रकाश ने पढाई पे ध्यान देने का नाटक किया| जी हाँ प्रकाश ने भी| क्योंकि पढाई उसके लिए एक खेल ही था| वैसे भी वो क्लास का टोपर था, तो कुछ सोचना तो था नहीं| अपने दीपक के पढाई की लग गयी थी, पूरी तरह से| किसी तरह खींच के नैया पास-घाट तक लगी| नेट की परीक्षा के लिए आवेदन दिया तो प्रकाश ने दीपक को कहा- "बेटे तुमको एक बात बोलनी थी|"
दीपक ने हरिश्चंद्र घाट पर जलते हुए एक चिता की लपटों को देखा और बोला- "क्या?"
"पहले इधर देख..., उसको देख के क्या फायदा जो जा चुका है?"
दीपक हँसते हुए बोला- "चल बोल क्या बोलना है|" इस बार वो प्रकाश को देख रहा था|
"तुझे पता है न कि तुने अपनी जिन्दगी की मार ली है..."
"हाँ तो?"
"तो ये कि अब तेरे पास जो कुछ बचा है, समेट; और इस मायाजाल से निकल जल्दी से|" दीपक सचमुच प्रकाश का मुंह ताकने लगा|
प्रकाश बोलता रहा-" तूने भी दर्शन पढ़ा है मेरे भाई, अच्छी तरह जानता है तू कि इंसान इच्छाओं के भावारजाल में फंसा रहता है| कभी कभी कुछ इच्छाएं कर लेता है, जो पूरी नहीं हो सकती| किसी हाल में नहीं| तो इसका ये मतलब तो नहीं कि उन इच्छाओं को पकड़ के बैठ जाना चाहिए!!?!! तेरी अपनी कोई ज़िन्दगी भी है यार, और तेरे माँ-बाप भी हैं, और उनकी भी तो इच्छाएं हैं जो तुझसे जुडती हैं....! तू समझ रहा है, मैं क्या कह रहा हूँ?"
"हाँ! समझता हूँ|" दीपक रुआंसा होता हुआ बोला| प्रकाश ने कोई ध्यान नहीं दिया और उठ कर खड़ा हो गया-"तो फिर तैयार रह, ये तेरा आखिरी मौका है; ऐसा समझ और सच में इस परेशानी से निकल, क्योंकि ये इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती..."
दीपक ने भी खड़े होना शुरू किया- "गलत!"
"क्या गलत?"
दीपक खड़ा हो गया- "आपने ही एक बार कहा था महाप्रभु कि आज तक ऐसी कोई इच्छा ही नहीं बनी जो पूरी न होती हो..." प्रकाश कुछ और कहना चाहता था, मगर दीपक बोलता रहा-"घबरा मत! नेट निकाल लूँगा मैं" और प्रकाश को इस तरह से देखा कि वो हंस पड़ा- "साला नौटंकी"


२.
नेट कि परीक्षा तो दोनों की निकली और बाबा विश्वनाथ की कृपा से दीपक को प्रकाश से भी अच्छे नंबर आये| प्रकाश ने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, वाराणसी में व्याख्याता का पद प्राप्त कर लिया| दीपक को भी अलीगढ और नयी दिल्ली से बुलावा मिल गया था, मगर अचानक एक दिन बोला- "यार! मैं घर जा रहा हूँ| मैं ये सब नहीं करूँगा, पिताजी का ऑफिस ही संभालूँगा| अपना बिजनेस ही ठीक है|"
प्रकाश ने एक मिनट चुप रह के सोचा-'ठीक ही है, माँ-बाप के पास रहेगा तो उनकी इच्छाओं को समझ सकेगा; और पैसे की तो इसको कभी कमी रही नहीं| योग्य है, आगे भी नहीं रहेगी.'
"ठीक है! जैसा सोचा है वैसा कर..."
हालाँकि उसको मन कर रहा था कि ऐसा बोले-' जैसी इच्छा है वैसा कर...' मगर उसकी इच्छा वो जानता था, जो बड़ी गन्दी सी और दुखदायी सी थी|

रेलवे स्टेशन पर बिछड़ते समय दीपक की आँखों में दो बूँद आंसू आ गए| प्रकाश के गले लगा और बोला-"भाई, कहते हैं की काशी की गली में बाबा घूमते रहते हैं| कभी मिल जाएँ, तो पूछना की मेरे साथ ऐसा क्यों किया|"
प्रकाश हँसते हुए बोला-"साले! पूछूँगा क्यों? बाबा मिलेंगे तब तो पहले मैं अपनी मुक्ति का उपाय पूछूंगा| तू अच्छे से रहना और फ़ोन करना|"

प्रकाश की शादी तय हो चुकी है और अगले महीने शादी है| दीपक का बिजनेस अच्छा चल रहा है| उसको भी शादी में बुलाया है| सपरिवार| देखिये सब के साथ जाता है कि  अकेले? कहानीके अगले भाग में- 

एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-६ 

मुझे गालियाँ मत दो दोस्तों! कहानी लम्बी है तो मैं क्या करूँ? बदल नहीं सकता...


Friday, September 16, 2011

Reloaded.......

 लगता है ये ब्लॉग फिर से जिंदा करना पड़ेगा,
मेरे दोस्तों को बहुत पसंद आ रहा था, मैंने बेकार ही बीच में छोड़ दिया. 
मैं फिर से आ रहा हूँ दोस्तों, इंतज़ार करिए.

Wednesday, March 3, 2010

Ek dard bhari prem kahani- 4

एक दर्द भरी प्रेम कहानी. भाग- 4.
एकबारगी तो लगा कि ये कहानी अधूरी ही रह जाएगी.
मगर आज अचानक टाइम मिल गया.
तो एक रि-कैप हो जाये-
गंगा किनारे दीपक आरती से मिला, दोनों ५ दिनों तक एक ही मकान में रहे, मगर अलग अलग. दोनों को एक दुसरे से प्यार हो गया. और अपने दोस्त प्रकाश के समझाने पर आखिर दीपक ने आरती से अपने दिल कि बात कह ही दी. आरती ने जाने से पहले दीपक को एक कागज़ का टुकड़ा दिया- " इसे घर जाकर पढना."   अब आगे---

१. दीपक और प्रकाश देर रात तक बाहर ही रहे. प्रकाश ने दीपक को शास्त्री जी से मिलवाया और दोनों ने शास्त्री जी से पढाई पर चर्चा की. रात को ११ बजे दीपक अपने कमरे पर पहुंचा. साथ में वह कागज़ का टुकड़ा भी था, जो शाम को आरती ने दिया था. दीपक ने जेब में से वह टुकड़ा निकला और पढने लगा-
११/०२,
सेक्टर- C ,
गोरखनाथ मार्ग,
बीरगंज.
 दीपक ने प्रकाश को अगले सुबह वो कागज़ दिखाया. " यार, ये तो उसके घर का पता लगता है." प्रकाश ने कहा.
" ये तो मुझे भी पता है, मगर ये बता; इस पते पर पहुंचा कैसे जाए?"
" पागल हो गया है. तू नेपाल जाएगा!? वीसा, पासपोर्ट वगैरह कुछ भी है तेरे पास?"
" नहीं है. मगर इन सब के बनने में कितना वक़्त लगेगा?"
और दोनों ने पासपोर्ट के लिए आवेदन दे दिया. लगे हाथों वीसा भी बनवाने लगे. ले दे के पासपोर्ट तो बन गया. तभी एक दिन दीपक को ध्यान आया- " अबे प्रकाश. नेपाल जाने के लिए वीसा की क्या जरूरत है?"
" बेटा, जरूरत तो कोई नहीं है. मगर मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता. शायद तुझे पता नहीं, कि मोगाम्बो कितना बड़ा अमरीशपुरी है. वो खड़े खड़े हम लोगों को अन्दर करवा देगा. इसलिए सोच समझ के गेम खेल ."

२. सारे कागजात बनवाते बनवाते एक साल बीत गया. और फिर दीपक और प्रकाश ने गर्मियों कि छुट्टी में रक्सोल की बस पकड़ी. रक्सोल में दोनों ने शास्त्री जी के लड़के अनुपम के घर पर डेरा डाला, जो वहां नारकोटिक इंस्पेक्टर के पद पर काम करता था. अगले दिन सुबह दोनों पैदल ही नेपाल के लिए रवाना हुवे. सीमा पर उनकी चेकिंग हुई. फिर दोनों बीरगंज पहुंचे.
११/०२,
सेक्टर- C ,
गोरखनाथ मार्ग,
बीरगंज.
ये पर्ची हाथ में लिए, दोनों इधर उधर घूम रहे थे. एक रिक्शा वाला मिल गया, जो गोरखनाथ मार्ग को ही जा रहा था. उसने दोनों को बिठाया, और बोला- " रोड पर पहुँचाने का ३० रूप्या, घर तक पहुँचाने का ४५ रूप्या."
दोनों घर पर पहुंचे. दरवाजे पर बड़ा सा ताला लगा था. पडोसी से पूछने पर पता चला- " कोन आरती? इधर तो कोई आरती नहीं रहते हैं साब जी. इस घर में तो ५ साल से कोई नहीं रहते. पहले केदार नाथ सिंह जी रहते थे, अपनी लुगाई अऊर दो लड़कों के साथ. अभी वो जनकपुर में रहते हैं. तब से ये घर खाली ही है."

३. दीपक और प्रकाश ने ढूंढने के कड़ी कोशिश की. अनुपम शास्त्री को भी जानकारी दे दी. उसने भरोसा दिलाया कि वो अपने नेपाली लिंक से आरती के बारे में पता लगाने की कोशिश करेगा. और हमारे दोनों दोस्त बैरंग वापस आ गए. दीपक को उदास देख कर प्रकाश ने कहा- " चल! इसी बहाने पासपोर्ट तो बन गया न. अब विदेश जाने के लिए ज्यादा मसक्कत तो नहीं करनी पड़ेगी न-"
दीपक ने गंगा की लहरों में देखते हुए कहा- " मगर, उसने मुझे गलत पता क्यों दिया. क्या उसे नहीं मालूम था कि उस मकान में ५ साल से कोई नहीं रहता?"
प्रकाश ने भी गंगा मैया के लहरों को देखते हुए कहा- " भूल जा यार. वो बस एक चैप्टर थी. अभी अपने पास पूरी जिंदगी की किताब पड़ी है. भूल जा."
" हूँ...."

 
आगे क्या हुआ? क्या आरती मिली? उसने गलत पता क्यों बताया था?
इन्तेजार करिये- 
एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग- ५ का.
तब  तक के लिए- नमस्कार.

Monday, September 21, 2009

beetal ka sangeet

नमस्कार मित्रों!
मैं पिछले दिनों एक बड़े ही सुन्दर चीज के पीछे पड़ा था. 


वो चीज थी साठ और सत्तर के दशक के महान संगीत- बैंड बीटल का संगीत. 
सबसे पहले तो मैंने अचानक ही यू-ट्यूब पर एक विडियो देखा जिसमे बीटल्स का प्रसिद्द गीत "यू गोट टू हाइड यौर लव अवे " दिखाया गया था. 
मैं पूर्ण रुपें भारतीय हूँ. एक छोटे से शहर में पला-बाधा, हिंदी फिल्मों के गानों और पंचम-दा, किशोर कुमार, मुकेश, रफी, रहमान, लता और श्रेया घोषाल के  अलावा और कुछ भी नहीं जानता था. मगर इन्टरनेट कि कृपा से अचानक पिछले महीने बीटल के संनिद्धि में आ गया.
           यद्यपि बीटल अमरीकन हैं, फिर भी उनके संगीत में कहीं न कहीं भारतीयता जरूर झलकती है. खास कर जोर्ज  हेरिसन का संगीत कई मायनों में भारतीय है. उनके कई गीत भी भारतीय संस्कृति और आध्यात्म से प्रेरित हैं. हेरिसन का पहला गाना जो मैंने सुना था, वो था- "दिस सोंग". यह गाना उन्होंने अपनी शुरूआती दिनों में तब बनाया था, जब उनके सुप्रसिद्ध गाने- "my स्वीट लोर्ड" को अमरीका के कुछ परंपरा वादी लोगों ने अदालत में घसीटा था, और उनके sarwjanik गाने पर paabandi lagaai गई थी. जब हेरिसन ने वह mukadma jeet लिया, तब उन्होंने "दिस सोंग" naamak गीत बनाया. यह गीत sunne के बाद मैं "my स्वीट लोर्ड" sunne के लिए प्रेरित हुआ. 
इस गाने को sunne के बाद मुझे पता चला कि हेरिसन asal में iskcon के sadasya then, और भारत के महान sant श्री bhaktivedant swami से बहुत prabhavit थे. prasangvash, श्री swami ने अमरीका में hindu darshan और vaishnay sampraday का jabardast prachaar किया है. उन्होंने ही 'antar-rashtriya krishna bhaawnaamrit sangh'(International Society of Krishna Consciousness- ISKCON) की sthapna कि थी.
बीटल के अन्य sadasy, jon lenan, sir paul mac-kartani tatha ringo star भी भारत से atyant prabhavit थे. उनके aadhyatmik guru maharshi yoganand थे. जब बीटल भारत कि yaatra पर था, तब haridwaar में maharshi के ashram पर उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध गीत- "across द universe" की rachna की थी. 




(इस बार post prakashit करना kathin हो गया है, kyoni ब्लॉगर में कोई pareshani uttpan हुई है. और यह roman aksharon को devnaagri में बदल नहीं पा रहा है.)

Thursday, August 27, 2009

कविता

हे कविते, तू कितनी सुंदर?

शब्द, छंद और अलंकार
के आभूषण से रची बसी तू।
तुकबंदी अरु अतुकांत के भेद-अभेद में खसी खसी तू।

कभी वीर के रगों में बनकर लहू दौड़ती,
कभी कामनी के अधरों पे रस सी ठौरती;
कभी कर्म में लगे जीव की शान्ति प्रदाता-
कभी धर्म में देवो के यज्ञों में गूंजती।

तू कवि की कल्पना, अल्पना, जीवन-संगिनी,
फ़िर भी क्यो, भाषा, शब्दों, वाक्यों की बंदिनी?

तू तो ह्रदय का गान है,
महत का तू ही ज्ञान है,
तू निज का अभिमान है-
हरि की प्रिय संतान है।

फ़िर क्या डरना, इस जगती के रूपों से,
दिशा, काल और स्थिति के स्वरूपों से-
हर पल उसका गान कर, जो तेरा सम्राट है।
जो हरि, तुझमे, मुझमे, सबमे, सबसे परे विराट है।
जिस से मिलके गिद्ध, अजामिल, गणिका, गज भी मुक्त हुए।
उसके ही प्रेम में तेरे सहज पद्य भी सूक्त हुए।

तो फ़िर चल मैं उस प्यारे से प्यार करूँ।
और उसी के प्यारे शब्दों से तेरा श्रृंगार करूँ।
जिसके शब्दों के प्रताप से पत्थर सागर में तरे
आज उसी के नाम-गान में आ, हम दोनों चरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

- प्रिय रंजन।

Saturday, August 1, 2009

एक कविता.

सावन तेरे इन्तजार में।
भूले बिसरे दिन मेरे जो बीते तेरी छम छम में।
वो नदिया, वो खेत हरे जो भीगे तेरी रिम झिम में।
तेरे आने से जो सारे चेहरे खिल जाते थे
तेरी बूंदों से भीग के बूटे बूटे मुस्काते थे,
तू आता था तो बच्चे सडको पे जहाज बहाते थे-
तेरे लय में मिल के नर नारी मलहार सुनाते थे।
तेरा बादल, तेरी बरखा, तेरा पवन सुहाना था।
पत्ता पत्ता, खेत, गली, अग- जग तेरा ही दीवाना था।
पिछले बरस ही तू आया था, पर लगता है युग बीत गए।
सावन तेरे इन्तजार में, इस साल हम रीत गए।

प्रिय रंजन