Tuesday, April 14, 2009

दो कवितायें.

नमस्कार मित्रों।
यहाँ पर मैं स्व-रचित दो कवितायें लेकर उपस्थित हूँ। आशा है की आपको पसंद आएँगी। अगर पसंद आए तो अपने विचार लिखिए। अगर पसंद न आए, तो अपनी आलोचनाये लिखिए।


जब से तुम बिछुडे।
तेरे मेरे मिलने का वो साल पुराना बीत गया।
जबसे तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया॥

एक नदी थी, एक था पीपल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
लहरों से छैंया तक का वो दौड़ लगाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

एक थी बरखा, एक था बादल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
सावन की छम छम बूंदों में धूम मचाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

एक हवा थी, एक था जंगल;
एक घना था, एक थी निर्मल।
पंख पसारे पत्तों के संग उड़ उड़ जाना बीत गया॥
जब से तुम बिछुडे हो प्रीतम, एक ज़माना बीत गया...

-----प्रिय रंजन----
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जीवन की तलाश।
जीवन! तू कहाँ है?

क्या यहाँ है?!--
जहाँ भूखे के पेट में रोटी नही है,
जहाँ प्यासे के हाथ में पानी नही है;
जहाँ भूखे मांगते हैं
और पेट -भरे लूटते हैं,
प्यासे अरमान से निहारते हैं
और गले-तरे नहाते हैं--
डुबकियां लगाते हैं;---
ऐसे यहाँ
अन्तर की इन्तेहाँ है!
और सब कहते हैं --- "तू यहाँ हैं!"

जब तुझे देखा था अमीर के बच्चे में,
तब क्या तू गरीब के बच्चे में नही था?
जब तेरी ठाठ देखी थी बड़ी सी कार में,
तब क्या तू
किसी पैदल
चप्पल चटकाते बेरोजगार में नही था?
---नही--
तू कहीं नहीं है।
कोई भूख से मरता है - कोई कब्ज़ से।
कोई प्यास से मरता है - कोई घुल के।
किसी के शरीर में खून ही नहीं -
कोई प्रेशर से रुक जाता है;----
हर आने वाला जाता है।
सब और मृत्यु की ही जय है
फ़िर भी सब को तुझसे स्नेह,
और मृत्यु से भय है।
जानते ही नहीं हैं---
की ये मृत्यु का राज्य है।
यहाँ तेरा ठिकाना कहाँ है?
फ़िर भी कयासों में चिल्लाते रहते हैं-----
"तू यहाँ है।"
"तू यहाँ है।"


------प्रिय रंजन----

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