Thursday, August 27, 2009

कविता

हे कविते, तू कितनी सुंदर?

शब्द, छंद और अलंकार
के आभूषण से रची बसी तू।
तुकबंदी अरु अतुकांत के भेद-अभेद में खसी खसी तू।

कभी वीर के रगों में बनकर लहू दौड़ती,
कभी कामनी के अधरों पे रस सी ठौरती;
कभी कर्म में लगे जीव की शान्ति प्रदाता-
कभी धर्म में देवो के यज्ञों में गूंजती।

तू कवि की कल्पना, अल्पना, जीवन-संगिनी,
फ़िर भी क्यो, भाषा, शब्दों, वाक्यों की बंदिनी?

तू तो ह्रदय का गान है,
महत का तू ही ज्ञान है,
तू निज का अभिमान है-
हरि की प्रिय संतान है।

फ़िर क्या डरना, इस जगती के रूपों से,
दिशा, काल और स्थिति के स्वरूपों से-
हर पल उसका गान कर, जो तेरा सम्राट है।
जो हरि, तुझमे, मुझमे, सबमे, सबसे परे विराट है।
जिस से मिलके गिद्ध, अजामिल, गणिका, गज भी मुक्त हुए।
उसके ही प्रेम में तेरे सहज पद्य भी सूक्त हुए।

तो फ़िर चल मैं उस प्यारे से प्यार करूँ।
और उसी के प्यारे शब्दों से तेरा श्रृंगार करूँ।
जिसके शब्दों के प्रताप से पत्थर सागर में तरे
आज उसी के नाम-गान में आ, हम दोनों चरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

- प्रिय रंजन।

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