Sunday, May 3, 2009

एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-३.

पूर्वापर
दीपक और प्रकाश ने गंगा के घाट पर आरती की जान बचाई। दुबे को पुलिस पकड़ के ले गयी। अगले पाँच दिनों तक आरती दीपक के मकान मालिक श्री पाण्डेय जी के घर पर रुकी। चौथे दिन आरती के चाचा श्री यादव जी आ गए। दीपक आरती से प्रेम करता है। शायद आरती भी दीपक से प्रेम करती है। मगर दीपक ने आरती से कुछ कहा नही है। प्रकाश दीपक को कहता है की आरती को अपने दिल का हाल सुना दे। अब आगे-
बिछड़ने का दिन।
आज पांचवा दिन है। आरती शनिवार को मिली थी। आज शुक्र वार है। पूरे सप्ताह में दीपक के दिल की दुनिया ही बदल गयी है। दीपक सोच भी नही पा रहा है कि आरती के वापस चले जाने के बाद उसकी जिंदगी कैसे बीतेगी। सुबह में जब प्रकाश उसे कॉलेज ले जाने के लिए आया, तो उसने तबियत ख़राब होने का बहाना बनाया। प्रकाश ने कहा- "बेटा मैंने कहा था न कि ऐसी बातें दिल में रखना स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं। मैं चलता हूँ कॉलेज। २ बजे आऊंगा। ५ बजे ट्रेन है। अभी १० बज रहा है। तेरे पास ४ घंटे हैं। बोल डाल। फ़िर मैं तुझे मेरे कंधे पर सर रख के रोने नही दूंगा। ओ के । "
दीपक हंसा- " हा हा । ठीक है यार। तेरी बात मान ली।"
दिन के १२ बज रहे थे। मोगाम्बो (यादव जी) पाण्डेय जी के साथ बनारस के बाज़ार से कुछ खरीदारी
करने गए थे। अब शौक है भाई। नीचे आरती अपना सामान पैक कर रही थी। ऊपर दीपक अपने कमरे में बैठा किताब पढने कि कोशिश कर रहा था। अचानक नीचे से रोने धोने कि आवाज़ आने लगी। दीपक ने ध्यान दिया। उषा कहा रही थी- "आरती दीदी, मुझे जाके भूल मत जाना। टेलीफोन करना।" दीपक ने वापस किताब पर ध्यान दिया- 'लड़कियां!'

१ बजे के करीब आरती अपना सूखता हुआ दुपट्टा लेने के लिए छत पर आई। दीपक ने किताब के कोने से देखा-' क्यों हो इतनी सुंदर? क्या मेरे पिछले जन्मो के पापो कि सज़ा देने के लिए इश्वर ने तुम्हे इतना सुंदर बनाया है? तुम चली जोगी, फ़िर मैं कैसे जियूँगा ? तुम्हे अंदाज़ भी है? ऐसा मुखडा, ऐसा स्वरुप, ऐसी आंखे, ऐसी आवाज़, ऐसे होंठ, क्यो लेके आई हो तुम? आई तो आई। अब जा क्यो रही हो? एक बार भी मुझ पर तरस नही खाया। कम से कम ही पूछ ही लेती- "मेरे प्राण प्रिये! क्या मैं चली जाऊं?" फ़िर मैं तुम्हे हाथ पकड़ के रोक लेता। देख लेता मैं दुनिया को और तुम्हारे मोगाम्बो को।' इतना सोचते ही दीपक के होंठो पर मुस्कान खेल गयी। उसने देखा। आरती अपने दोनों सूखे हुए दुपट्टे हाथ में लेके उसकी ही तरफ़ आ रही है।
"नमस्ते दीपक जी।"
"नमस्ते। आइये बैठिये।" दीपक ने कुर्सी छोड़ दी और ख़ुद बिस्तर पर बैठ गया।
"नही मैं बैठने नही आई हूँ।"
"तो------"
"मैं बस आपको विदा कहने आई हूँ। एक घंटे में चाचाजी और प्रकाश जी आ जायेंगे। फ़िर हम चले जायेंगे।''
''अरे रे। मैं भी तो आऊंगा न स्टेशन पर छोड़ने---"
"नही। वो तो है। मगर मैं आपको थैंक यू बोलना चाहती थी........."
"थैंक यू--!?"
"आपने मेरी इतनी मदद की। एक अंजान के लिए कौन करता है इतना सब ---"
'मैं अंजान! मैं तो हजारों सालों से तुम्हारा हूँ--' "नही, नही। इस में थैंक यू कि क्या बात है? ये तो मेरा फ़र्ज़ था-"
"अच्छा तो मैं चलती हूँ--"
"इतनी जल्दी-" "नही, मैं तो नीचे जा रही हूँ।" आरती को दीपक कि बेचैनी देख के हँसी आ गयी। उसकी मुस्कराहट देखकर दीपक ने होश खो दिए-' दीपक के बच्चे। देख वो भी तुझ से प्यार करती है। क्यो ख़ुद भी जल रहा है, और उसकी जान से भी खेल रहा है। बोल दे। बोल दे। बोल दे।'
आरती वापस मुडी और सीढियों कि और जाने लगी। 'बोल दे दीपक। बोल दे।'
आरती सीढियों के कमरे में आ गयी। तभी दीपक ने पीछे से पुकारा- "आरती।"
आरती पीछे मुडी -"हा। कहिये--"
"आरती मैं तुम्हे कुछ कहना चाहता हूँ।"
"क्या?" आरती खड़ी ही थी। दीपक उसकी तरफ़ बढ़ा। "मैं--"
"जी!??" आरती ने दीपक को बड़ी उम्मीद से देखा। दीपक ने इधर उधर देखा। आरती के एकदम पास आ गया। "मैं तुमसे--" "मुझसे क्या-?"
[प्रकाश कि छवि फ़िर प्रकट हुयी-'कुत्ते की औलाद। अगर अभी नही कहा तो मैं तुझे गंगा में फेंक दूंगा और तेरे गले में पत्थर फ्री में बाँध दूंगा। बोल दे।] "मैं तुमसे प्यार करता हूँ।"
आरती के आँखों में दो बूंद आ गए। दीपक को लगा की उसके पेट में से कुछ निकल गया है। उसने अपने मुंह को अचानक बंद कर लिया। दोनों होंठ अन्दर को भींच लिए। आरती खड़ी रह गयी। कुछ सेकंड ऐसे ही बीत गए। आरती ने खामोशी को तोडा-"मैं भी--"
दीपक खुश होने लगा। उसका मुंह खुलने लगा। "मैं जा रही हूँ। बाय।" कह कर आरती नीचे की और दौड़ गयी। उसकी चाल में एक नयी तेज़ी और नयी मस्ती थी। वो खुश थी। दीपक का मुंह खुला का खुला रह गया। उसने अपने दोनों हाथ अपने कमर पर रखे। एक बार नीचे देखा। फ़िर आरती को देख के एक नटखट सी हँसी निकली-"हः।"
स्टेशन पर।
स्टेशन पर दीपक था। आरती थी। पाण्डेय जी थे। यादव जी थे। प्रकाश था। चाची जी और उषा भी थे। पूरा काफिला आया हुआ था। प्रकाश ने घड़ी देखी "ट्रेन आने में अभी आधा घंटा है। यार दीपक चल जरा बाथरूम हो आए।" "ठीक है चल।" हालाँकि दीपक का मन आरती को छोड़कर (जो लगातार उषा से चिपकी हुई थी) जाने का नही था; मगर फ़िर भी वो प्रकाश के साथ चल दिया। दोनों बाथरूम से निकल के प्लेटफोर्म पर ही टहलने लगे। "तो, बोला की नही!" प्रकाश ने एक पानी की बोतल खरीदी। "क्या बोला-?" दीपक जानता था की प्रकाश क्या पूछ रहा है?
"अबे अब तो स्टाइल मत मार।"
"-" कुछ देर दोनों चुप रहे। दीपक ने अपने दोनों हाथ पैंट के पॉकेट में डाले और कंधे उचकाए-"हा। बोल दिया।"
"क्या बोला?"
"यही कि 'मैं तुमसे प्यार करता हु . '"
"अबे साले ये क्या बोल गया तू? तू मुझसे नही आरती से प्यार करता है। गे कही का!" दीपक ने पटरी की ओर एक कुल्ला फेंका। दीपक को हँसी आ गई-"अरे यार, मैंने उस से कहा की मैं उस से प्यार करता हूँ।"
"हाँ तो ऐसे बोल न। indirect स्पीच में।- फ़िर क्या हुआ?"
"फ़िर क्या हुआ क्या ?---"
"उसने कुछ कहा।??"
"हा- यही कहा की मैं भी-"
"तू भी क्या?"
"अरे यार, मैं नही वो।"
"अच्छा!!"
"उसने कहा कि वो भी।"
"वो भी क्या?"
"अरे उसने बस इतना ही कहा कि वो भी। और फ़िर चली गयी."
"ले, तुझे आधे पर छोड़ गयी; कम से कम पप्पी झप्पी तो लेना था यार . "
आरती बातें तो उषा से कर रही थी। मगर उसकी निगाह दीपक पर ही टिकी थी। तभी ट्रेन आ गयी। यादव जी और आरती को अपनी सीट मिल गयी। सब लोग ट्रेन के अन्दर ही बैठे थे, बस उषा और चाची जी बाहर प्लेटफोर्म पर थे । आरती ने दीपक से कहा-"दीपक जी। मुझे ठंडा पानी लेना है। कहा मिलेगा?" उसने एक बोतल निकाला। दीपक ने कहा- "मुझे दीजिये; मैं लाता हूँ।"
"नही, मैं भी चलती हूँ। जरा हवा में जाने का मन कर रहा है।" मोगाम्बो उस समय मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा था। आरती और दीपक ट्रेन से निकले और प्लेटफोर्म पर आ गए। प्रकाश पाण्डेय जी को कहने लगा- "चाचा जी, अब आप लोग निकलिए। या फ़िर कम से कम चाची और उषा को भिजवा दीजिये। साढ़े ५ बज गए हैं, और ट्रेन ६ बजे के पहले नही खुलेगी। दीपक और आरती पानी के नल की ओर टहलने लगे। आरती ने नल से ठंडा पानी भरा। बोतल बंद किया। और अचानक दीपक को कहा-"मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ। हाथ लाइए . "
"क्या है?"
"नही, पहले हाथ बढाइये।"
दीपक ने अपना हाथ बढाया। आरती ने अपने समीज के पॉकेट से एक कागज का टुकडा निकला। "इसे घर जाकर पढ़ लेना।" इतना कह कर आरती फ़िर वापस मुडी और तेज क़दमों ट्रेन की तरफ़ चली गयी । मन्त्र मुग्ध सा दीपक उस कागज को अपनी जेब में डाल कर उसके पीछे पीछे चल दिया।
आगे क्या हुआ जानने के लिए पढिये -
एक दर्द भरी प्रेम कहानी, भाग-४

2 comments:

  1. लेखन के लिये “उम्र कैदी” की ओर से शुभकामनाएँ।

    जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव जीते हैं, लेकिन इस समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये मानव जीवन ही अभिशाप बन जाता है। अपना घर जेल से भी बुरी जगह बन जाता है। जिसके चलते अनेक लोग मजबूर होकर अपराधी भी बन जाते है। मैंने ऐसे लोगों को अपराधी बनते देखा है। मैंने अपराधी नहीं बनने का मार्ग चुना। मेरा निर्णय कितना सही या गलत था, ये तो पाठकों को तय करना है, लेकिन जो कुछ मैं पिछले तीन दशक से आज तक झेलता रहा हूँ, सह रहा हूँ और सहते रहने को विवश हूँ। उसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह आप अर्थात समाज को तय करना है!

    मैं यह जरूर जनता हूँ कि जब तक मुझ जैसे परिस्थितियों में फंसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, समाज के हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यह भी एक बडा कारण है।

    भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस प्रकार के षडयन्त्र का कभी भी शिकार हो सकता है!

    अत: यदि आपके पास केवल कुछ मिनट का समय हो तो कृपया मुझ "उम्र-कैदी" का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आपके अनुभवों/विचारों से मुझे कोई दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये! लेकिन मुझे दया या रहम या दिखावटी सहानुभूति की जरूरत नहीं है।

    थोड़े से ज्ञान के आधार पर, यह ब्लॉग मैं खुद लिख रहा हूँ, इसे और अच्छा बनाने के लिए तथा अधिकतम पाठकों तक पहुँचाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने वालों का आभारी रहूँगा।

    http://umraquaidi.blogspot.com/

    उक्त ब्लॉग पर आपकी एक सार्थक व मार्गदर्शक टिप्पणी की उम्मीद के साथ-आपका शुभचिन्तक
    “उम्र कैदी”

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  2. bahut acchalikha pandey G
    if you will recive this comment then reply Pls on pksharma.net@gmail.com

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